5/15/2009

हायफन

मैंने जब भी सोचा
रुका तभी जब
पहुंचा ‘हम’ तक।

तुमने जब भी सोचा
लांघ न पाई ‘मैं’ की झाडी।

मैं सोचता हूँ
जब हम एक हैं
तो फिर
यह विरोधाभास क्यों?

क्या अब भी
मेरे और तुम्हारे बीच
कोई हायफन (डेश)शेष है
जो हमें/एक होनेका
आभास तो कराता है
साथ ही भिन्नता का भी?

यदि तुम्हारा सोचना यह कि
हायफन मात्र से एकात्मकता सम्भव है
तो यह सबसे बड़ा वहम् है

हायफन शब्दों और अक्षरों को
तो जोड़ सकता है
दिलों और सम्बन्धों को नहीं ।

सोचता हूँ
क्या तुम भी कभी ‘मैं’ को पीछे छोड़
‘हम’ तक पहुँचोगी?
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संजय परसाई की एक कविता



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1 comment:

  1. क्या अब भी
    मेरे और तुम्हारे बीच
    कोई हायफन (डेश)शेष है

    --बहुत सही ऑबजर्वेशन!!

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