4/09/2009

कौआ

कौआ
बार-बार जानवर की
पीठ पर घाव करता,

जानवर को
लहूलुहान देख
हम उसे उ़ड़ाने का प्रयत्न करते
किन्तु/वह पुनः प्रयास करता

उसे हम बदसगुन समझ
उड़ा देते/और

कुछ समय पश्चात
वहीं कौआ हमारे घर की
मुंडेर पर बोलता
तो किसी अतिथि के आगमन का
आभास कराता

और हम उसे शुभ शगुन समझ
उसे धन्यवाद देते
बार-बार देते
कई बार देते ।
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संजय परसाई की एक कविता




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1 comment:

  1. लगता है यह कौए की नहीं हमारी धारणाओँ की कविता है।

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