2/27/2009

आखिर क्यों?

क्यों होता है ऐसा
आखिर क्यों?

जब भी छूने को होती है
मंजिल
भ्रमित हो जाता हूँ
क्षितिज सा।

भाग्य और भरोसा
एक लगते हुए भी
हो जाते है दूर........ बहुत दूर........

और फिर दिखाई देने लगता है
एक नया क्षितिज

फिर शुरु हो जाती है
मंजिल पाने की
एक नई कोशिश ।

कभी - कभी सोचता हूँ
क्या सही राह पर
बढ़ रहा हूँ मैं ?


या भरोसे का यह क्षितिज
मात्र अहसास है
मंजिल होने का।

यदि ऐसा है तो
बदल लेना चाहिए
मुझे राह

भाग्य और भरोसे के क्षितिज की
मृग मरीचिका को छोड़
चुन लेनी चाहिए
ऐसी राह
जो चाहे कठोर हो
लेकिन मंजिल होने का
अहसास तो दिलाए ।

और यदि ये राह
सही है तो
अवश्य जाऊँगा मैं
भाग्य और भरोसे के क्षितिज से दूर
असली मंजिल की
तलाश में ।
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संजय परसाई की एक कविता

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4 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना है यह ... आभार पढवाने का।

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  2. संजय जी को बधाई.. उम्दा लेखन के लिए..

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  3. संजय जी की सुंदर रचाना के लिये उन्हे धन्यवाद, ओर आप का भी बहुत बहुत धन्यवाद

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