12/29/2008

बसन्‍त


।। बसन्त ।।

रोज देखता हूँ तुम्हारी ओर
लगता है हर दिन
बारह घण्टे पुरानी हो रही हो तुम ।
राशन, सब्जी, दूध, बिजली,
के बढ़ते दाम व्यस्त रखते हैं तुम्हें
हिसाब-किताब में ।
नई चिन्ता के साथ
केलेण्डर में ही आता है
फागुन, सावन, कार्तिक ।
जिन्दगी का गुणा-भाग
करते-करते
जब ढल आती है
कोई लट चेहरे पर
या पोंछते हुए पसीना माथे का
मुस्कुरा देती हो मुझे देख
सच समझो उतर आता है बसन्त
हम दोनों की जिन्दगी में ।

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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता


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1 comment:

  1. बहुत खुब एक अच्छी बीबी का चित्र... ओर प्यार
    धन्यवाद

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