11/18/2008






।। समर ।।




मैं व्यवस्था की



अपंगता का शिकार हूँ ।



व्यवस्था, जिसमें दौड़ नहीं सकते



घिसटते जाते हैं हम ।



हर बार जब जी चाहता है उड़ना



सीमाओं को लाँघते हुए



मैं फड़फड़ा कर रह जाता हूँ



व्यवस्था के साथ लड़ाई में



जटायु की तरह ।



कलुषता जब बढ़ती है



मैं बिफर पड़ता हूँ



जैसे अनेक दुर्वासा



समा गए हों मुझमें ।



पर मैं दुर्वासा कहाँ ?



कहाँ मुझमें शाप की ताकत ?



मैं तो व्यवस्था की अपंगता का शिकार हूँ



जिसे लड़ना है



सहर होने तक ।



-----




‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता




मैं पंकज के प्रति मोहग्रस्त हूँ, निरपेक्ष बिलकुल नहीं । आपसे करबध्द निवेदन है कि कृपया पंकज की कविताओं पर अपनी टिप्पणी अवश्‍य दें ।




यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें । मेरा पता है - विष्‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001





कृपया मेरा ब्‍लाग 'एकोऽहम्' भी देखें ।




No comments:

Post a Comment

अपनी अमूल्य टिप्पणी से रचनाकार की पीठ थपथपाइए.